Chhaava-An Eye Witness Account-right from the core of the Heart by Murali Manohar

आंखों देखी, दिल में गुनी, मन से लिखी…..
मुरली मनोहर द्वारा
मुंबई, 9 मार्च (क्लीन मीडिया)
“छावा” की गहराई में उतरती एक समीक्षा
कहीं भी “छावा” का ऐसा गहन विश्लेषण देखने को नहीं मिला… इसलिए मैंने बहुत समय लेकर यह लिखा है… उम्मीद है कि आप सभी इसे पढ़ेंगे।
इतिहास पर आधारित फिल्मों को देखने के लिए इतिहास की अच्छी समझ होना जरूरी है… साथ ही भाषा की भी। अगर कोई ऐतिहासिक फिल्म को एक सामान्य कमर्शियल फिल्म की तरह देखे, तो कई चीजें समझ में नहीं आएंगी।
मुझे हिंदी समझ में आती है और मैं इसे बिना ज्यादा गलती किए बोल भी सकता हूँ… फिर भी, “छावा” फिल्म के कई संवाद पूरी तरह से समझ नहीं आया। याद रखना तो दूर की बात है। अंग्रेजी सबटाइटल्स थे, लेकिन इतने भयानक युद्ध के दृश्यों के बीच, तीव्र भावनात्मक पलों के बीच, और उससे भी ऊपर, शक्तिशाली बैकग्राउंड म्यूजिक के बीच, सबटाइटल्स पढ़ना मुश्किल था। इसलिए, मैंने इस फिल्म की समीक्षा लिखने का इरादा नहीं किया था… लेकिन दोस्तों के अनुरोध पर लिख रहा हूँ। संवादों को हूबहू उद्धृत करने में गलतियाँ हो सकती हैं, लेकिन अर्थ सही रहेगा।
शिवाजी से छत्रपति संभाजी महाराज तक – मेरा सफर
पहले, जब भी “शिवाजी” का नाम सुनता था, तो मेरे मन में बस स्कूल की इतिहास की किताबों में देखी गई एक छवि उभरती थी – एक राजा, जिसकी घनी दाढ़ी और सिर पर पगड़ी थी। इसके अलावा, मैं उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता था, क्योंकि इतिहास मेरा पसंदीदा विषय नहीं था।
बॉम्बे में रहने के दौरान जब मैंने अपने दोस्तों से बातों-बातों में “शिवाजी” कहा, तो मराठी दोस्त तुरंत नाराज होकर टोकते – “शिवाजी महाराज” कहो। तब भी मुझे समझ नहीं आया कि इस व्यक्ति की इतनी पूजा क्यों की जाती है। लेकिन धीरे-धीरे, मैंने छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में पढ़ा, जाना, और उनकी महानता को समझा। फिर भी, उनके पुत्र संभाजी महाराज के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी।
कल जब मैंने “छावा” देखी, तब जाकर मुझे समझ में आया कि संभाजी महाराज कौन थे।
फिल्म का सार
“छावा” मराठी के प्रसिद्ध लेखक शिवाजी सावंत के उपन्यास पर आधारित है। यह फिल्म 1681 से 1689 के बीच के भारतीय इतिहास को दर्शाती है।
छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के बाद, उनके पुत्र संभाजी महाराज किस तरह मुगलों के खिलाफ संघर्ष करते हैं, यह फिल्म उसी की गाथा है। मुगलों के नेता औरंगजेब, कई बार मराठा शक्ति को कुचलने का प्रयास करते हैं। लेकिन संभाजी की वीरता और नेतृत्व कौशल के कारण वह सफल नहीं हो पाता।
जब युद्ध में विजय असंभव हो जाती है, तो औरंगजेब छल और विश्वासघात का सहारा लेता है। अपने ही राजमहल और परिवार में छिपे गद्दारों की मदद से, वह संभाजी को पकड़वाता है। इसके बाद कई दिनों तक अमानवीय यातनाएँ देकर उन्हें अंततः मौत के घाट उतार दिया जाता है।
वीरता, बलिदान और एक सच्चे योद्धा की कहानी
फिल्म में संभाजी महाराज के बलिदान, अडिग संकल्प, और उनके नेतृत्व कौशल को बेहद प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
संभाजी सिर्फ एक राजा ही नहीं थे, बल्कि एक इंसान भी थे, जिनके अंदर भावनाएँ थीं।
छोटी उम्र में माँ को खोने का दर्द…
हर मुश्किल घड़ी में अपने दिवंगत पिता से सपनों में बातचीत करने वाला नन्हा ‘शंभू’…
“मुझे ‘शंभू’ कहकर बुलाओ… मैं उस पुकार को सुनने के लिए तरस रहा हूँ,” यह अपने चाचा से बार-बार कहने वाला एक बेटा…
युद्धभूमि में योद्धा, लेकिन पत्नी के सामने प्रेम से भरा एक पति…
दुश्मनों से लड़ते हुए भी भीतर से प्रेम, ममता और अपनापन चाहने वाला एक पुत्र…
संभाजी की पत्नी येसूबाई सिर्फ एक प्रेममयी पत्नी ही नहीं हैं, बल्कि हर कठिन परीक्षा में अपने पति की भावनात्मक ताकत भी बनती हैं। हर बार जब संभाजी युद्ध के लिए जाते हैं, तो वह उनसे पूछती हैं – “क्या आपको डर नहीं लगता?” और संभाजी के जवाब देने से पहले ही कहती हैं – “मुझे जरूर लगता है… लेकिन आपके लिए नहीं, बल्कि आपके दुश्मनों के लिए!”
संभाजी का बलिदान, उनकी अडिग निष्ठा और संघर्ष को फिल्म ने खूबसूरती से उकेरा है।
औरंगजेब का मौन – एक अलग तरह का आतंक
फिल्म में औरंगजेब का किरदार अपने शब्दों से नहीं, बल्कि मौन से डर पैदा करता है। युद्ध के कोलाहल और तलवारों की झंकार से ज्यादा खतरनाक है उसकी चुप्पी। उसके चेहरे के भाव, उसकी तीखी आँखें, और उसके एक-एक शब्द का वजन दर्शकों को सिहरन पैदा कर देता है।
संभाजी के पकड़े जाने के बाद औरंगजेब उनसे पूछता है –
“तुम्हारा ‘स्वराज्य’ कहाँ है?”
संभाजी उत्तर देते हैं –
सह्याद्री पर्वतों में…
गोदावरी की लहरों में…
रायगढ़ की मिट्टी में…
नासिक की हवा में…
कोंकण के समुद्री किनारों पर…
भवानी माता के चरणों में…
और लाखों मराठा पुत्रों की नसों में!
संभाजी महाराज के ये शब्द हर भारतीय के रोंगटे खड़े कर देते हैं।
फिल्म का अंतिम झटका
संभाजी की निर्मम हत्या के बाद औरंगजेब खुद टूट जाता है। उसके होठों से जो अंतिम शब्द निकलते हैं, वे इतिहास का एक कटु सत्य उजागर करते हैं –
“अगर मेरे पास संभाजी जैसा पुत्र होता, तो मुझे यह सब करने की जरूरत नहीं पड़ती… परंतु जब मैं मरूँगा, तो मेरे साथ यह मुगल सल्तनत भी समाप्त हो जाएगी।”
संभाजी ने अपनी अंतिम साँस तक स्वराज्य की रक्षा की। उनकी मृत्यु से एक नए मराठा युग का आरंभ हुआ।
अंतिम विचार – एक आवश्यक इतिहास
क्या आपको पता है?
संभाजी महाराज ने 127 युद्ध लड़े और कभी हार नहीं मानी। लेकिन फिर भी हमारे स्कूलों में उनके बारे में नहीं पढ़ाया गया।
इसके बजाय, हमें उन्हीं आक्रमणकारियों और लुटेरों के बारे में पढ़ाया गया, जिन्होंने लाखों भारतीयों का कत्लेआम किया।
हमारी इतिहास की किताबें हमें यही सिखाती रहीं कि भारत हमेशा हारता रहा।
लेकिन सच यह है कि यह देश संभाजी महाराज जैसे वीरों की धरती है, जिन्होंने अपनी अंतिम साँस तक धर्म और स्वराज्य की रक्षा की।
“छावा” सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय वीरता की गूंज है!
A true and vivid description of the history…